गमो के पहाडो तले
असंख्य फूलो के जंगलो में
अतीत की गुफामें
कहीं छिपकर
सिमटकर
बैठी है, औ प्रिय!
याद तुम्हारी
समाजकी हिंसक वृति से
भयभीत ( आतंकित) बेचारी!
तनिक जाक करा कभी कभी दूरसे ही
मुजसे प्यार कर लेती है
नजरके मिस याद तुम्हारी.
मुझे दोष मत देना, मोहन, मुज पर रोष न करना ! दिवस जलाता , निशा रुलाती, मन की पीड़ा दिशा भुलाती कितनी दूर सपन है तेरे कितनी तपन मुझे जुलसाती चलती हू , पर नहीं थकाना जलती हू पर होश न हरना मोहन, मुझ पर रोष न करना ! इसी तपन ने आखे खोली इसी जलन ने भर दी जोली जब तुम बोले मौन रही मै जब मौन हुए तुम , मै बोली सहना सबसे कठीन मौन को कहना है , खामोश न करना ! मोहन, मुझ पर रोष न करना !