Friday 2 December 2011

"पसीना बरसे सुरजका "


यह सूरज -
धधकता -
विशाल नभमे
दिन भर,
पूरब से पश्चिम तक
चल चलकर
ताप तपकर
थक जाता है
सूरज -
बादलके रुमाल से
पसीना अपना
तर बतर
पोछ रहा है
सूरज
फिर निचोड़ देता है पानी
रुमाल ;
बरस जाता है पानी
झरमर  झरमर !
जल मीठा बनाकर
हरियाली रंगा देता है
इधर उधर
-
प्रसन्नता से
लहलहा उठाती है धरा
पसीने की कमाई
खाकर
आने
पसीने से भींगे रुमाल 
शरद मे झटककर
सुखाये
रात भर
और तह कर
रख देता है उनको
दिन के उजाले में
सूरज
फिर
संगमरी चांदनी की
माया में
राते बीता कर
हों जाता है
शीतल ,
निर्मल
सूरज
और तब हवाओं में
बिखर बिखर जाती है
पुष्पों की
पराग - राज
सिहर सिहर ...!
किरनोकी बाहों से
आहिस्ते छु लेता है सूरज
सागर की चंचल
लहर लहर !

1 comment:

  1. किरनोकी बाहों से
    आहिस्ते छु लेता है सूरज
    सागर की चंचल
    लहर लहर !
    वाह ...बहुत बढि़या।

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